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रूपांतर
हम चाहते हैं सर्वागीण रूपांतर, शरीर और उसके सभी क्रिया-कलापों का रूपांतर । परंतु इसका एक प्रथम पूर्ण रूप से अनिवार्य पग हैं : चेतना का रूपांतर जिसे और कोई चीज आरंभ करने से पहले पूरा करना होगा । यह कहने की जरूरत नहीं कि इस विषय मे हमारी यात्रा का प्रारंभ-स्थल होगा इस रूपांतर की अभीप्सा और इसे सिद्ध करने का संकल्प; उसके बिना कुछ भी नहीं किया जा सकता । परंतु अभीप्सा के साध यदि एक प्रकार का आंतरिक उद्घाटन, एक प्रकार की ग्रहणशीलता भी आ जूठे तो व्यक्ति एक ही छलांग में इस रूपांतरित चेतना में प्रवेश कर सकता है और वहीं बना रह सकता है । कहा जा सकता है कि चेतना का यह परिवर्तन अकस्मात् होता है; जब होता हैं तो एकाएक हों जाता है , उसकी तैयारी भले हीं बहुत धीरे-धीरे और दीर्घकाल सें होती आयी हो । मैं यहां मानसिक दृष्टिकोण मे होनेवाले किसी सामान्य परिवर्तन की बात नहीं कह रहीं, बल्कि स्वयं चेतना के परिवर्तन की बात कह रहीं हूं । यह एक प्रकार से पूर्ण और विशुद्ध परिवर्तन हैं, आधारभूत स्थिति मे होनेवाली एक क्रांति है; यह प्रायः गेंद को भीतर से बाहर उलट देने के जैसी बात है । इस परिवर्तित चेतना मे प्रत्येक चीज केवल नयी और भिन्न हीं नहीं मालूम होती, बल्कि पहले साधारण चेतना को जैसी मालूम होती थीं उससे प्रायः उलटी प्रतीत होती हैं । साधारण चेतना मे तुम धीरे-धीरे चलते हो, एक-के-बाद-एक प्रयोग करते हुए चलते हो, अज्ञान से किसी सुदूर-स्थित और यहांतक कि, संदिग्ध शान की ओर जाते हो । पर रूपांतरित चेतना में तुम ज्ञान से आरंभ करते हो, और ज्ञान से ज्ञान की ओर अग्रसर होते हो । फिर भी, यह है आरंभ हीं, क्योंकि बाहरी चेतना, बाहरी और क्रियाशील सत्ता के विभिन्न स्तर और अंश एक भीतरी रूपांतर के फलस्वरूप, धीरे-धीरे और क्रमश: हीं रूपांतरित होते हैं ।
वह वास्तव में चेतना का एक आशिक परिवर्तन है जिसके कारण तुम उन सब चीजों में बिलकुल रस लेना छोड़ देते हो जो पहले वांछनीय लगती थीं; लेकिन यह तो केवल चेतना का एक परिवर्तन है , वह चीज नहीं है जिसे हम रूपांतर कहते हैं । क्योंकि रूपांतर तो एक मौलिक और निरपेक्ष वस्तु हैं; वह एक परिवर्तन मात्र नहीं है, बल्कि चेतना का एकदम उलट जाना है : मानो सारी सत्ता एक चक्कर खा गयी हो और एक और ही स्थिति मे जा खड़ी हुई हो । इस उलटी हुई चेतना में हमारी सत्ता जीवन और वस्तुओं से ऊपर खड़े होती है और वहां से उनके साथ व्यवहार करती है; वह केंद्र मे होती है और वहीं सें अपनी क्रिया बाहर की ओर चलाती हैं । जब कि साधारण चेतना मे हमारी सत्ता बाहर और नीचे खड़ी रहती है : बाहर से वह केंद्र में आने के लिये प्रयास करती है, नीचे से वह अपने अज्ञान और अंधापन के बोध्य तले दबी हुई उनसे ऊपर उठने के लिये जी-तोड़ संघर्ष करती है । साधारण चेतना यह नहीं
७२ जानती कि वास्तव में चीजें कैसी हैं; वह केवल ऊपरी छिलके को, कठोर आवरण को ही देखती हैं । परंतु सच्ची चेतना केंद्र मे, सद्वस्तु के हृदय में रहती हैं और समस्त गतिविधि और क्रिया-कलाप के मूल को अपनी सीधी दृष्टि से देखती है । अंदर और अपर रहते हुए यह सभी वस्तुओं और शक्तियों के मूल उद्गम, कारण और परिणाम को जानती हैं ।
मै फिर दुहरा रही हूं, चेतना का यह मलटना आकस्मिक होता हैं । कोई चीज तुम्हारे अंदर खुल जाती हैं और तुम अपने को तुरत-फुरती एक नवीन जगत् मे पाते हो । यह परिवर्तन आरंभ सें हीं संभव हैं कि अंतिम और सुनिश्चित न हो इसे स्थायी रूप से जमाने और तुम्हारा सामान्य स्वभाव बनने के लिये समय की आवश्यकता होती हैं । परंतु एक बार परिवर्तन हो जाये तो वह तत्त्वतः, सदा के लिये बना रहता है; और उसके बाद जिस चीज की जरूरत होती हैं वह है अपनी ठोस अभिव्यक्ति के लिये उसका पूर्ण ब्योरे के साथ कार्यान्वित होना । रूपांतरित चेतना की पहली अभिव्यक्ति हमेशा आकस्मिक प्रतीत होती है । तुम्हें यह नहीं लगता कि तुम धीरे-धीरे और क्रमश: एक चीज सें दूसरी चीज मे बदलते जा रहे होरा बल्कि यह अनुभव करते हो कि तुम एकाएक एक नयी चेतना में जाग्रत् हो गये हो या जन्म पा रहे हो । मन का कोई मी प्रयास यह परिवर्तन नहीं ला सकता; क्योंकि मन से तुम यह कल्पना हीं नहीं कर सकते कि यह क्या चीज है और मन का कोई मी वर्णन यथार्थ नहीं हों सकता ।
यही समस्त, सर्वांगीण रूपांतर का प्रारंभ है ।
('बुलेटिन', अगस्त १९५०)
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